लोजपा में दोफाड़ के बाद चिराग और पारस गुटों के अपने दावे, पर क्या कहते हैं नियम-किसका पलड़ा भारी?

ताज़ा खबर बिहार राजनीति
SHARE

सेंट्रल डेस्क। लोक जनशक्ति पार्टी अब दोफाड़ हो चुकी है। एक धड़े का नेतृत्व पार्टी के संस्थापक स्व. रामविलास पासवान के पुत्र सांसद चिराग पासवान कर रहे हैं तो दूसरे धड़े का नेतृत्व चिराग के चाचा पशुपति पारस कर रहे हैं। दोनों धड़ों के नेता खुद को ही पार्टी का असली कर्णधार बता रहे हैं। दावे अपनी जगह, पर यह सवाल तो जरूर अहम है कि नियमों के दायरे में दोनों में से पार्टी का असली वारिस कौन साबित हो सकता है।

वैसे किसी पार्टी के वारिसाना हक को लेकर विवाद कोई नया नहीं है। इससे पहले उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव बनाम शिवपाल यादव, आंध्र प्रदेश में एनटीआर बनाम चंद्रबाबू नायडु, तमिलनाडु में जयललिता बनाम जानकी और हरियाणा में चौटाला परिवार के बीच ऐसी जंग हो चुकी है।

इस संबन्ध में राजनीतिक मामलों के जानकार कहते हैं कि जब कोई पार्टी दो हिस्सों में बंट जाती है, तो मामला चुनाव आयोग के पास जा सकता है। ये गुट स्वयं के बहुमत में होने का दावा करते हैं। ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग दोनों पक्षों को बुलाकर मामले की सुनवाई कर सकता है।

इस प्रक्रिया में आयोग सबूत देखता है, विधायकों और सांसदों की गिनती की जाती है। ये देखा जाता है कि बहुमत किस ओर है, पार्टी के पदाधिकारियों में बहुमत किस खेमे के पास है। जिसके पास बहुमत होना सिद्ध होता है, उसी गुट को पार्टी माना जाता है।

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि चिराग पासवान और पशुपति पारस के मामले में बिहार विधानसभा या विधान परिषद में लोक जनशक्ति पार्टी के पास एक भी सदस्य नहीं है। जबकि लोकसभा में पार्टी के पास छह सांसद हैं जिनमें से पाँच पारस गुट में हैं। ऐसे में संख्या बल के लिहाज़ से पारस गुट मज़बूत स्थिति में नज़र आ रहा है।

हालांकि बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, चूंकि चिराग गुट लगातार ये दावा कर रहा है कि लोक जनशक्ति पार्टी का संविधान उनके पक्ष में है। ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव आयोग, किसी पार्टी के संविधान को किस तरह देखता है और संख्या बल वाले गुट को पार्टी के रूप में स्वीकार क्यों करता है।

इस संबन्ध में संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत के संविधान में राजनीतिक पार्टी का ज़िक्र ही नहीं है। वर्ष 1967 के बाद ये समस्या सामने आई कि पार्टियां टूट सकती हैं। तब जाकर एक चुनाव चिह्न आदेश तैयार किया जिसे ‘सिंबल्स ऑर्डर 1968’ कहते हैं।

यही आदेश अभी तक चल रहा है। इसे किसी क़ानून में नहीं बदला गया है। इस आदेश में सब कुछ स्पष्ट है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया है। आदेश का पैरा 16 कहता है कि किसी भी पार्टी के विभाजन में तीन चीज़ें महत्वपूर्ण हैं। पहला चुने हुए प्रतिनिधि किस तरफ हैं, दूसरे पदाधिकारी किस तरफ हैं, और तीसरी संपत्तियां किस तरफ हैं।

लेकिन किस धड़े को पार्टी माना जाए इसका फैसला सिर्फ चुने हुए प्रतिनिधियों के बहुमत के आधार पर होता है। जिस तरफ चुने हुए प्रतिनिधि होंगे, वही पार्टी होगी। इसी तर्ज पर इससे पहले समाजवादी पार्टी में विभाजन हुआ तो चुनाव आयोग ने अखिलेश यादव के गुट को स्वीकार किया था।

संवैधानिक मामलों के जानकार यह भी कहते हैं कि जब भी कोई पार्टी पंजीकृत होती है तो उन्हें चुनाव आयोग को एक पार्टी संविधान देना होता है पार्टी में सदस्यों को निकाला जाना हो, उनका निलंबन हो, नेतृत्व में बदलाव हो, या राष्ट्रीय अध्यक्ष को बदलना हो, ये सब पार्टी के संविधान के अनुसार होना चाहिए अगर ये सब संविधान के अनुसार नहीं हुआ है तो चुनाव आयोग जाया जा सकता है। इसके साथ ही अधिकारों के हनन की याचिका के साथ कोर्ट भी जा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *