झारखंड डेस्क। पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में देश का प्रतिनिधित्व करनेवाला दिव्यांग एथलीट को आज पेट भरने के लिए कड़ी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। झारखंड के धनबाद के रहने वाले दिव्यांग एथलीट अजय कुमार पासवान और उनका परिवार अब दाने-दाने को मोहताज हो रहा है। उनके घर की आर्थिक स्थिति ऐसी हो चुकी है कि अब अजय कड़ी मेहनत और काबिलियत के दम पर एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में जीते अपने मेडल बेचकर राशन खरीदने की तैयारी कर रहे हैं।
अजय झारखंड राज्य के धनबाद जिला के कतरास इलाके के मलकेरा बस्ती निवासी हैं। वे दिव्यांग होने के बावजूद बचपन से ही खेलकूद में अव्वल रहे और अपनी मेहनत की बदौलत अच्छे एथलीट बन गए। अपने 10 साल के करियर में उन्होंने राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 100 मीटर, 200 मीटर और 400 मीटर की दौड़ में अजय कई मेडल अपने नाम कर चुके हैं लेकिन देश और झारखंड का नाम रोशन करनेवाला यह बेहतरीन राष्ट्रीय पैरा एथलीट आज आर्थिक तंगी और सिस्टम के आगे लाचार हो गया है। अपनी दिव्यांगता की वजह से अजय ठीक से बोलने में असमर्थ हैं, लेकिन टूटी-फूटी जुबान में मीडिया से बात करते हुए कहते हैं कि सरकार को हमारे जैसे खिलाड़ियों के बारे में भी सोचना चाहिए। उनकी शिकायत है कि इतने मेडल जीतने के बाद भी कोई पूछनहार नहीं है। उन्होंने कहा, “आजतक कोई सरकारी सहायता नहीं मिली। कोई सरकारी अधिकारी आज तक झांकने नहीं आए।”
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बात अगर उनकी पारिवारिक स्थिति की करें तो अजय के परिवार की स्थिति यह है कि छोटा भाई घर-घर पानी पहुंचा कर छह सदस्यों के इस परिवार की गाड़ी को किसी तरह खींच रहा है। अजय ने कहा कि अब वह अपने घर का खर्च चलाने के लिए जीते हुए मेडल बेच देंगे। इससे जो भी पैसे मिलेंगे, उससे कम से कम घर का खर्च तो चलेगा। अजय ने बताया कि आर्थिक तंगी की वजह से ही उनका स्पोर्ट्स करियर भी अब चौपट हो गया है। सिर्फ 5000 रुपए का जुगाड़ न हो पाने की वजह से वे एक बड़ी चैंपियनशिप मुकाबले में हिस्सा नहीं ले पाये। अजय ने कहा, “साल 2015 में अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप के लिए उनका चयन हुआ था। यह चैंपियनशिप बेलारूस में होनी थी। लेकिन खेल एसोसिएशन की ओर से चैंपियनशिप में भाग लेने के लिए निजी खर्च पर जाने का फरमान जारी किया गया था। दौड़-भाग कर पासपोर्ट तो बना लिया लेकिन 5 हजार रुपए की व्यवस्था न हो पाने के कारण वीजा नहीं बन पाया।”
अजय कहते हैं कि वे 5 हजार रुपये का न तो इंतजाम कर पाये और न ही किसी ने उनकी मदद की। इस वजह से अजय को एक बड़ी प्रतियोगिता से हाथ धोना पड़ा। सरकारी बेरुखी ने उन्हें बेदम कर दिया है। अपनी दिव्यांगता के कारण सामान्य जीवन न जी पाने में सक्षम न हो पाने के बावजूद अपनी मेहनत और काबिलियत के दम पर नाम तो बहुत कमाया पर आर्थिक स्थिति नहीं सुधरी। सरकारें भले ही दिव्यांग जनों के लिए कई तरह की योजनाओं की बात करती हो, नौकरी में वरीयता, आर्थिक मदद की भले ही कई योजनाओं के होने का दावा किया जाता हो, पर अजय जैसे नामी-गिरामी एथलीट को अबतक इनमें से किसी योजना के तहत लाभ न मिलने से ऐसी योजनाओं की प्रासंगिकता भी सवालों के घेरे में है।