वशिष्ठ नारायण सिंह की टिप्पणी
अभी हाल ही में नीति आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी है,उससे स्पष्ट होता है कि ‘बहुआयामी गरीबी सूचकांक’ में बिहार 36 वें पायदान पर है।राज्य सरकार की तमाम प्रशंसनीय कोशिशों के बाबजूद भी प्रदेश बहुत पीछे है।नीति आयोग के रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश की 51.91 फीसदी जनसंख्या गरीब है और इस प्रकार नीति आयोग के मानकों के मुताबिक देश में सबसे पिछड़ा राज्य बिहार है।हालाँकि उन मानकों की वैधता व प्रासंगिकता को लेकर अलग बहस हो सकती है और हो भी रही है।
नीति आयोग के रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘ महत्वपूर्ण रूप से यह सूचकांक परिवारों द्वारा सामना किए जाने वाले कई अभावों को दर्ज करता है।’बहुआयामी गरीबी की निगरानी करने वाली संस्था नीति आयोग के इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद से ‘बिहार को विशेष राज्य दर्जा’ की वर्षों पुरानी माँग को ठोस बल मिल गया है और यह उचित भी है।हमने विशेष दर्जे के ख़ातिर बहुत पूर्व से ही सघन अभियान चलाया हुआ है।हम इस माँग से कभी पीछे भी नहीं हटे हैं।बिहार की जनता द्वारा ‘हस्ताक्षर-अभियान’ भी इसी माँग की एक कड़ी थी,जिसे मैंने नीतीश कुमार के प्रभावशाली नेतृत्व में प्रदेश-अध्यक्ष रहते हुए पूरा किया था।
आज बिहार यदि राष्ट्रीय मानक से पीछे है तो उसे आगे लाने के लिए अलग-अलग तरह के सहयोग की आवश्यकता है।यह सहयोग तो केंद्र सरकार को ही करना है।बिहार अन्य राज्यों से अलग स्थिति में है,यहाँ की दिक्कतें,चुनौतियाँ और यहाँ की विडंबनाएँ अलग तरह की हैं।जनसंख्या-घनत्व की अधिकता,संसाधनों की कमी,पलायन,बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी जैसे मूलभूत कारण हमें ‘विशेष राज्य’ स्वाभाविक रूप से बनाता है।
जेडीयू ने यूपीए के रहते हुए ही इस माँग को जोरशोर से उठाया था।माँग को देखते हुए उस समय की केंद्र सरकार ने दबाव में ग़रीब राज्यों को मिलने वाले वित्तीय प्रावधानों पर पुनर्विचार के लिए ‘रघुराम राजन समिति’ गठित कर विशेषज्ञों की राय भी ली थी।
उस वक्त केंद्र सरकार ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में जानकारी दी थी कि विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने का मुद्दा सबसे पहले राष्ट्रीय विकास परिषद की अप्रैल, 1969 में आयोजित बैठक के दौरान ‘गाडगिल फॉर्मूला’ के अनुमोदन के वक्त उठा था। सबसे पहले वर्ष 1969 में ही असम, जम्मू एवं कश्मीर और नागालैंड को यह दर्जा दिया गया था. इसके बाद अगली पंचवर्षीय योजना के दौरान यह दर्जा पांच और राज्यों – हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा – को भी दे दिया गया। फिर 1990 में दो और राज्यों – अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम – को यह दर्जा दिया गया, तथा वर्ष 2001 में उत्तराखंड के गठन के साथ ही उसे भी विशेष राज्य का दर्जा दे दिया गया।
रघुराम राजन समिति के प्रावधानों के मुताबिक,प्रति व्यक्ति आय की जगह उपभोग को मानक सूचकांक में शामिल करने पर ऋण उपभोग के दबाव में ग़रीब राज्यों को नुक़सान हो गया और बिहार को अपेक्षित लाभ इस समिति से नहीं मिल सका, जिसके लिए बिहार ने इस रिपोर्ट पर अपनी असहमति भी दर्ज कराई थी।
बिहार भारत का दूसरा सबसे बड़ी आबादी वाला ग़रीब राज्य है, जहां अधिकांश आबादी समुचित सिंचाई के अभाव में मॉनसून, बाढ़ और सूखे के बीच निम्न उत्पादकता वाली खेती पर अपनी जीविका के लिए निर्भर है।करीब 96 फ़ीसदी जोत सीमांत और छोटे किसानों की है. वहीं लगभग 32 फ़ीसदी परिवारों के पास ज़मीन नहीं है।
बिहार के 38 ज़िलों में से लगभग 15 ज़िले बाढ़ क्षेत्र में आते हैं जहां हर साल कोसी, कमला, गंडक, महानंदा, पुनपुन, सोन, गंगा आदि नदियों की बाढ़ से करोड़ों की संपत्ति, जान-माल, आधारभूत संरचना और फसलों का नुक़सान होता है।
विकास के बुनियादी ढांचे सड़क, बिजली, सिंचाई, स्कूल, अस्पताल, संचार आदि के क्षेत्र में संतोषजनक काम होने के बाद भी, हर साल बाढ़ के बाद इनके पुनर्निर्माण के लिए अतिरिक्त धन राशि की चुनौतियां भी बनी रहती हैं.
बिहार की उत्तरी सीमा पर पड़े कई जिले अंतरराष्ट्रीय सीमा नेपाल पर स्थित हैं।सीमा की वजह से वहाँ की अपनी अलग परेशानी है।निवेशक वहाँ निवेश से बचते हैं।पूर्व में भी विशेष राज्य के दर्जे के ख़ातिर जो शर्त बनाया गया था,उसमें यह शर्त सम्मिलित था।विशेष राज्य के दर्जे दिए जाने का निर्णय केंद्र सरकार के विवेकपूर्ण फैसले पर निर्भर करता है।ऐसा नहीं है कि इस दर्जे को दिए जाने में कोई संवैधानिक अड़चन हो।
बिहार की बढ़ती विकास की दर सामान्यतः निर्माण, यातायात, संचार, होटल, रेस्तरां, रियल एस्टेट, वित्तीय सेवाओं आदि में सर्वाधिक रही है जहां रोज़गार बढ़ने की संभावना अपेक्षाकृत कम होती है।
खेती, उद्योग और जीविका के अन्य असंगठित क्षेत्रों में, जिन पर अधिक लोग निर्भर हैं, विकास की दरों में काफी उतार-चढ़ाव देखा गया है. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई सकारात्मक प्रयास अवश्य हुए हैं जिससे सामाजिक विकास के ख़र्चों में महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी भी हुई है. लेकिन ये अब भी विकसित राज्यों की तुलना में काफ़ी कम है.
इस तरह अर्थव्यवस्था का आधार छोटा होने के कारण उनका सार्थक प्रभाव जीविका विस्तार और ग़रीबी निवारण पर दिखना अब भी बाकी है. इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र में पर्याप्त वित्तीय निवेश की ज़रूरत है.
राज्य को वित्तीय उपलब्धता मुख्यतः केंद्रीय वित्तीय आयोग की अनुशंसा पर केंद्रीय करों में हिस्से और योजना आयोग के अनुदान के साथ केंद्र प्रायोजित योजनाओं के अलावा राज्य सरकार द्वारा लगाए गए करों से होती है.
केंद्र प्रायोजित योजनाओं में अकसर राज्य की भागीदारी 30 से 55 फ़ीसदी होती है. चूंकि ग़रीब राज्यों की जनता की कर देने की क्षमता कम होती है, अकसर बराबर धनराशि के अभाव में ग़रीब राज्य उन योजनाओं का पूरा लाभ नहीं ले पाते हैं.बिहार इसका अपवाद नहीं है।
विशेष राज्य का दर्जा न केवल 90 फ़ीसदी अनुदान के लिए बल्कि करों में विशेष छूट के प्रावधान से विकास योजनाओं के लाभ और निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने में भी मददगार होगा.निवेश होने से रोजगार की संभावना बनेगी,पलायन रूकेगा, तब जाकर कहीं स्थिति अनुकूल हो सकेगी।
यदि राज्यों को मिलने वाले प्रति व्यक्ति योजना व्यय पर नज़र डालें तो बिहार जैसे ग़रीब राज्यों को मिलने वाली धनराशि पंजाब की तुलना में लगभग एक तिहाई से भी कम रही है जिससे विकास और ग़रीबी निवारण का कार्य प्रभावित होता है.
ग़रीब राज्यों की केंद्रीय संसाधनों में हिस्सेदारी बढ़ाने का आधार विकसित करने की ज़रूरत है, तब ही ये राज्य ग़रीबी निवारण के लिये आवश्यक विकास दर बनाए रख सकते हैं.
बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद खनिज संपदा से मिलने वाली रॉयल्टी के नुक़सान के साथ ज़रूरी वित्तीय क्षतिपूर्ति नहीं होने के कारण भी विकास कार्यों में बाधाएं बढ़ी ।बँटवारे के बाद बिहार के हिस्से में केवल बालू और मिट्टी शेष बचा।
ऐसे में ग़रीब राज्यों का तेज़ी से विकास ही देश के विकास दर को और बढ़ा सकता है। और क्षेत्रीय विषमता को पाटने में कारगर हो सकता है. इसलिए ग़रीब राज्यों के वित्तीय प्रावधानों को बदलने के लिये विशेष राज्य का दर्जा समावेशी विकास के लिये ज़रूरी है.
यह माँग केवल माँग मात्र ही नहीं है,इससे बिहार की जनता का आत्मसम्मान भी जुड़ा हुआ है।देश की पूँजी और तमाम तरह की सुविधाओं को हासिल करने का हक बिहारवासियों का भी उतना है,जितना कि अन्य प्रदेशवासियों का।संघीय ढांचा और हमारा लोकतंत्र इससे मजबूत ही होता है…..
(लेखक जदयू के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व राज्यसभा के सांसद रहे हैं। कई आंदोलनों से भी जुड़े रहे हैं। उन्होंने यह आलेख अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा है।)